Education : -

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Education
शिक्षा, समाज एक पीढ़ी द्वारा अपने से निचली पीढ़ी को अपने ज्ञान के हस्तांतरण का प्रयास है। इस विचार से शिक्षा एक संस्था के रूप में काम करती है, जो व्यक्ति विशेष को समाज से जोड़ने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है तथा समाज की संस्कृति की निरंतरता को बनाए रखती है। बच्चा शिक्षा द्वारा समाज के आधारभूत नियमों, व्यवस्थाओं, समाज के प्रतिमानों एवं मूल्यों को सीखता है। बच्चा समाज से तभी जुड़ पाता है जब वह उस समाज विशेष के इतिहास से अभिमुख होता है।
शिक्षा प्रणालियों शिक्षा और प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए, अक्सर बच्चों और युवाओं के लिए स्थापित की जाती है एक पाठ्यक्रम छात्रों को क्या पता होना चाहिए, बोध और शिक्षा के परिणाम के रूप में करने के लायक समझ को परिभाषित करता है। अध्यापन का पेशा, सीख प्रदान करता है जो विद्या प्राप्ति और नीतियों की एक प्रणाली, नियमों, परीक्षाओं, संरचनाओं और वित्तपोषण को सक्षम बनाता है और वित्तपोषण शिक्षकों को अपनी प्रतिभा के उच्चतम् क्षमता से पढ़ाने में सहायता करता है।
शिक्षा व्यक्ति की अंतर्निहित क्षमता तथा उसके व्यक्तित्त्व का विकसित करने वाली प्रक्रिया है। यही प्रक्रिया उसे समाज में एक वयस्क की भूमिका निभाने के लिए समाजीकृत करती है तथा समाज के सदस्य एवं एक जिम्मेदार नागरिक बनने के लिए व्यक्ति को आवश्यक ज्ञान तथा कौशल उपलब्ध कराती है। शिक्षा शब्द संस्कृत भाषा की ‘शिक्ष्’ धातु में ‘अ’ प्रत्यय लगाने से बना है। ‘शिक्ष्’ का अर्थ है सीखना और सिखाना। ‘शिक्षा’ शब्द का अर्थ हुआ सीखने-सिखाने की क्रिया।
प्राथमिक शिक्षा प्राथमिक शिक्षा जीवन का आधार है जो प्रत्येक नागरिक के विकास में सहायक है और उसके भविष्य का निर्माण करती है. इसका सीधा ताल्लुक देश के कल के निर्माण से है, जिसमे इन्ही नौनिहालों का योगदान रहता है. अतः भारत ने आपने बच्चों को संपूर्ण साक्षर करने का बीड़ा उठाया है और यह लेख उन्ही बड़ते हुए क़दमों को विस्तृत कर बताता है।
शिक्षा एक व्यक्ति को अपनी क्षमता का पता लगाने में मदद करती है, जो बदले में एक मजबूत और एकजुट समाज को बढ़ावा देती है। इसका उपयोग करने से इनकार करना किसी भी व्यक्ति को एक पूर्ण इंसान बनने में बाधा उत्पन्न कर सकता है। परिवार, समुदाय और राज्य को बड़े स्तर पर ले जाने के लिए मानव समाज के हर स्तर पर शिक्षा का महत्व बहुत आवश्यक है।
शिक्षा शब्द संस्कृत के शिक्ष् धातु से बना है जिसका अर्थ है सीखना या सिखाना। यानि इस अर्थ में शिक्षा सीखने-सिखाने की प्रक्रिया है। शिक्षा के लिए विद्या शब्द का भी उपयोग किया जाता है जिसका अर्थ होता है जानना। एजुकेशन शब्द लैटिन भाषा के चार शब्दों से मिलकर बना है जिसका अर्थ है प्रशिक्षित करना, अन्दर से बाहर निकालना, पालन पोषण करना और आंतरिक से वाह्य की तरफ जाना।

अतः संक्षेप में कहा जा सकता है कि शिक्षा का अर्थ मनुष्य की आंतरिक शक्तियों को बाहर की तरफ आने के लिए प्रेरित करना। जॉन एडम्स के मुताबिक प्राचीन काल में शिक्षा शिक्षक केंद्रित थी। जिसके दो छोर थे, शिक्षक और शिक्षार्थी। बाद में जॉन डिवी ने शिक्षा को बालकेंद्रित बताते हुए इसके तीन केंद्रों का जिक्र किया। जो क्रमशः शिक्षक, शिक्षार्थी और पाठ्यक्रम हैं।
साधन अंग्रेजी शब्द ‘‘एजेन्सी’’ का हिन्दी रूपान्तरण है- एजेन्सी का अर्थ है एजेन्ट का कार्य। एजेन्ट से हमारा अभिप्राय उस व्यक्ति या वस्तु से होता है, जो कोई कार्य करता है या प्रभाव डालता है। अत: शिक्षा के साधन- वे तत्व कारण स्थान या संस्थायें है जो बालक पर शैक्षिक प्रभाव डालते हैं। समाज ने शिक्षा के कार्यों को करने के लिये अनेक विशिष्ट संस्थाओं का विकास किया है। इन्हीं संस्थाओं को शिक्षा के साधन कहा जाता है। इनको इस प्रकार वर्गीकश्त किया गया है।

विचार : -

1. शिक्षा से मेरा तात्पर्य बालक और मनुष्य के शरीर, मन तथा आत्मा के सर्वांगीण एवं सर्वोत्कृष्ट विकास से है।

2. शिक्षा व्यक्ति की उन सभी भीतरी शक्तियों का विकास है जिससे वह अपने वातावरण पर नियंत्रण रखकर अपने उत्तरदायित्त्वों का निर्वाह कर सके।

3. शिक्षा राष्ट्र के आर्थिक, सामाजिक विकास का शक्तिशाली साधन है, शिक्षा राष्ट्रीय सम्पन्नता एवं राष्ट्र कल्याण की कुंजी है।

औपचारिक शिक्षा : -


वह शिक्षा जो विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में चलती हैं, औपचारिक शिक्षा कही जाती है। इस शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यचर्या और शिक्षण विधियाँ, सभी निश्चित होते हैं। यह योजनाबद्ध होती है और इसकी योजना बड़ी कठोर होती है। इसमें सीखने वालों को विद्यालय, महाविद्यालय अथवा विश्वविद्यालय की समय सारणी के अनुसार कार्य करना होता है। इसमें परीक्षा लेने और प्रमाण पत्र प्रदान करने की व्यवस्था होती है। इस शिक्षा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। यह व्यक्ति में ज्ञान और कौशल का विकास करती है और उसे किसी व्यवसाय अथवा उद्योग के लिए योग्य बनाती है। परन्तु यह शिक्षा बड़ी व्यय-साध्य होती है। इससे धन, समय व ऊर्जा सभी अधिक व्यय करने पड़ते हैं।
भारतीय योग मनोविज्ञान का विचार केन्द्र मनुष्य का बाह्य स्वरूप और उसका अन्त: करण दोनो होते हैं। बाह्य स्वरूप में वह उसकी कर्मेन्द्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों का अध्ययन करता है और अन्त:करण में मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त और आत्मा का अध्ययन करता है। उसकी दृष्टि से- शिक्षा का अर्थ है मनुष्य की बाह्य इन्द्रियों और अन्त:करण का प्रशिक्षण।
शिक्षा के द्वारा सर्वप्रथम शरीर मस्तिष्क और चित्त एवं आत्मा का विकास होना चाहिए। इस विषय में जर्मन शिक्षाशास्त्री पेस्टालॉजी का मत है कि यह विकास स्वाभाविक, सम और प्रगतिशील होना चाहिये। उनके शब्दों में- ‘‘शिक्षा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का स्वाभाविक समरस और प्रगतिशील विकास है। पेस्टालॉजी के शिष्य फ्रोबेल ने शिक्षा को इस रूप में परिभाषित किया है- ‘‘शिक्षा वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा बालक अपनी आन्तरिक शक्तियों को बाहर की ओर प्रकट करता है।’’
व्यवस्था की दृष्टि से शिक्षा के तीन रूप है- औपचारिक, निरौपचारिक और अनौपचारिक। वह शिक्षा जो विद्यालयों, महाविद्यालयों और विण्वविद्यालयों में दी जाती है, औपचारिक शिक्षा कही जाती है। इसके उद्देश्य, पाठ्यचर्या और शिक्षण विधियां सभी निश्चित होते हैं। यह योजनाबद्ध हेाती है और इसकी योजना बड़ी कठोर होती है। इसमें सीखने वालों को विद्यालय समय सारिणी के अनुसार कार्य करना होता है। यह शिक्षा व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। यह शिक्षा व्यय साध्य होती है। इसे कई स्तरों पर व्यवस्थित किया जाता है प्रत्येक स्तर पर परीक्षा और प्रमाण-पत्र की व्यवस्था की जाती है।

निरौपचारिक शिक्षा : -

वह शिक्षा जो औपचारिक शिक्षा की भाँति विद्यालय, महाविद्यालय, और विश्वविद्यालयों की सीमा में नहीं बाँधी जाती है। परन्तु औपचारिक शिक्षा की तरह इसके उद्देश्य व पाठ्यचर्या निश्चित होती है, फर्क केवल उसकी योजना में होता है जो बहुत लचीली होती है। इसका मुख्य उद्देश्य सामान्य शिक्षा का प्रसार और शिक्षा की व्यवस्था करना होता है। इसकी पाठ्यचर्या सीखने वालों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर निश्चित की गई है। शिक्षणविधियों व सीखने के स्थानों व समय आदि सीखने वालों की सुविधानानुसार निश्चित होता है।
चिंतन स्तर में शिक्षक अपने छात्रों में चिंतन तर्क तथा कल्पना शक्ति को बढ़ाता है ताकि छात्र दोनों के माध्यम से अपनी समस्याओं का समाधान कर सके । चिंतन स्तर पर शिक्षण समस्या केंद्रित होता है । इस स्तर में अध्यापक बच्चों के सामने समस्या उत्पन्न करता है और बच्चों को उस पर अपने स्वतंत्र चिंतन करने का समय देता है । इस स्तर में बच्चों में आलोचनात्मक तथा मौलिक चिंतन उत्पन्न होता है।
वह शिक्षा जो न तो औपचारिक शिक्षा की भांति विद्यालयी शिक्षा की सीमा में बांधी जाती है और न अनौपचारिक शिक्षा की भांति आकस्मिक रूप से संचालित होती है, निरौपचारिक शिक्षा कहलाती है। इस शिक्षा का उद्देश्य, पाठ्यचर्या और शिक्षण विधियां प्राय: निश्चित होते हैं, परन्तु औपचारिक शिक्षा की भांति कठोर नहीं होते। यह शिक्षा लचीली होती है। इसका उद्देश्य प्राय: सामान्य शिक्षा का प्रसार और सतत् शिक्षा की व्यवस्था करना होता है। इस पाठ्यचर्या को सीखने वालों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर निश्चित की जाती है। समय व स्थान भी सीखने वालों की सुविधा को ध्यान में रखकर निश्चित किया जाता है। यह शिक्षा व्यक्ति की शिक्षा को निरन्तरता प्रदान करने का कार्य करती है। निरौपचारिक शिक्षा के भी अनेक रूप हैं। जैसे प्रौढ़ शिक्षा, खुली शिक्षा, दूर शिक्षा और जीवन पर्यन्त शिक्षा अथवा सतत् शिक्षा।

सकारात्मक शिक्षा : -

शिक्षण विधि के आधार पर शिक्षा को सकारात्मक एवं नकारात्मक दो रूपों में विभक्त किया जाता है। सकारात्मक शिक्षा में हम अपने नव आगन्तुक पीढ़ी को अपनी जाति के अनुभवों एवं आर्दशों से कम समय में ही परिचित कराने का प्रयास करते है। सत्य बोलना मानव धर्म निभाना, धर्म का पालन करना, झूठ न बोलना आदि सकारात्मक शिक्षा है परन्तु इस प्रकार सीखा हुआ ज्ञान स्थायी नहीं होता है।

नकारात्मक शिक्षा : -

नकारात्मक शिक्षा वह है जिसमें बच्चों को स्वय अनुभव करके तथ्यों की खोज करने एवं आर्दशों का निर्माण करने के अवसर दिये जाते हैं, अध्यापक तो केवल, इन तथ्यों की खोज एवं आर्दणों के निर्माण के लिये बच्चों को अवसर प्रदान करता है और उनका दिशा निर्देशन करता है। इस प्रकार सीखा हुआ ज्ञान स्थायी होता है।

अनौपचारिक शिक्षा : -

वह शिक्षा जिसकी याजे ना नहीं बनायी जाती न ही निश्चित उद्देश्य होते हैं, न पाठ्यचर्या और न शिक्षण विधियॉ और जो आकस्मिक रूप से सदैव चलती रहती हैं उसे अनौपचारिक शिक्षा कहते हैं। इस प्रकार की शिक्षा मनुष्य के जीवन भर चलती रहती है। परिवार एवं समुदाय में रहकर हम जो सीखते हैं उसमे ंसे वह सब जो समाज हमें सिखाना चाहता है अनौपचारिक शिक्षा की कोटि में आता है। मनौवैज्ञानिकों का कहना है कि मनुष्य के व्यक्तित्व का तीन चौथाई निर्माण उसके पहले पॉच वर्षों में हो जाता है और इन वर्षों में शिक्षा प्राय: अनौपचारिक रूप से ही चलती है।

शिक्षा का महत्व : -

आज के समाज में शिक्षा का महत्व काफी बढ़ चुका है। शिक्षा के उपयोग तो अनेक हैं परंतु उसे नई दिशा देने की आवश्यकता है। शिक्षा इस प्रकार की होनी चाहिए कि एक व्यक्ति अपने परिवेश से परिचित हो सके। शिक्षा हम सभी के उज्ज्वल भविष्य के लिए एक बहुत ही आवश्यक साधन है। हम अपने जीवन में शिक्षा के इस साधन का उपयोग करके कुछ भी अच्छा प्राप्त कर सकते हैं। शिक्षा का उच्च स्तर लोगों की सामाजिक और पारिवारिक सम्मान तथा एक अलग पहचान बनाने में मदद करता है। शिक्षा का समय सभी के लिए सामाजिक और व्यक्तिगत रुप से बहुत महत्वपूर्ण समय होता है, यहीं कारण है कि हमें शिक्षा हमारे जीवन में इतना महत्व रखती है।
शिक्षा स्त्री और पुरुषों दोनों के लिए समान रुप से आवश्यक है, क्योंकि स्वास्थ्य और शिक्षित समाज का निर्माण दोनो द्वारा मिलकर ही किया जाता हैं। यह उज्ज्वल भविष्य के लिए आवश्यक यंत्र होने के साथ ही देश के विकास और प्रगति में भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इस तरह, उपयुक्त शिक्षा दोनों के उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करती है। वो केवल शिक्षित नेता ही होते हैं, जो एक राष्ट्र का निर्माण करके, इसे सफलता और प्रगति के रास्ते की ओर ले जाते हैं। शिक्षा जहाँ तक संभव होता है उस सीमा तक लोगों बेहतर और सज्जन बनाने का कार्य करती है।
विद्या एक ऐसा धन है जिसे ना तो कोई चुरा सकता है और नाही कोई छीन सकता। यह एक मात्र ऐसा धन है जो बाँटने पर कम नहीं होता, बल्कि की इसके विपरीत बढ़ता ही जाता है। हमने देखा होगा कि हमारे समाज में जो शिक्षित व्यक्ति होते हैं उनका एक अलग ही मान सम्मान होता है और लोग उन्हें हमारे समाज में इज्जत भी देते हैं। इसलिए हर व्यक्ति चाहता है कि वह एक साक्षर हो प्रशिक्षित हो इसीलिए आज के समय में हमारे जीवन में पढ़ाई का बहुत अधिक महत्व हो गया है। इसीलिए आपको यह याद रखना है कि शिक्षा हमारे लिए बहुत जरूरी है इसकी वजह से हमें हमारे समाज में सम्मान मिलता है जिससे हम समाज में सर उठा कर जी सकते हैं।
शिक्षा लोगों के मस्तिष्क को उच्च स्तर पर विकसित करने का कार्य करती है और समाज में लोगों के बीच सभी भेदभावों को हटाने में मदद करती है। यह हमारी अच्छा अध्ययन कर्ता बनने में मदद करती है और जीवन के हर पहलू को समझने के लिए सूझ-बूझ को विकसित करती है। यह सभी मानव अधिकारों, सामाजिक अधिकारों, देश के प्रति कर्तव्यों और दायित्वों को समझने में भी हमारी सहायता करता है।
पहले, शिक्षा प्रणाली बहुत ही महंगी और कठिन थी, गरीब लोग 12वीं कक्षा के बाद उच्च शिक्षा प्राप्त करने में सक्षम नहीं थे। समाज में लोगों के बीच बहुत अन्तर और असमानता थी। उच्च जाति के लोग, अच्छे से शिक्षा प्राप्त करते थे और निम्न जाति के लोगों को स्कूल या कालेज में शिक्षा प्राप्त करने की अनुमति नहीं थी। यद्यपि, अब शिक्षा की पूरी प्रक्रिया और विषय में बड़े स्तर पर परिवर्तन किए गए हैं। इस विषय में भारत सरकार के द्वारा सभी के लिए शिक्षा प्रणाली को सुगम और कम महंगी करने के लिए बहुत से नियम और कानून लागू किये गये हैं।
सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण, दूरस्थ शिक्षा प्रणाली ने उच्च शिक्षा को सस्ता और सुगम बनाया है, ताकि पिछड़े क्षेत्रों, गरीबों और मध्यम वर्ग के लोगों के लिए भविष्य में समान शिक्षा और सफलता प्राप्त करने के अवसर मिलें। भलीभाँति शिक्षित व्यक्ति एक देश के मजबूत आधार स्तम्भ होते हैं और भविष्य में इसको आगे ले जाने में सहयोग करते हैं। इस तरह, शिक्षा वो उपकरण है, जो जीवन, समाज और राष्ट्र में सभी असंभव स्थितियों को संभव बनाती है।
ऑक्सफोर्ड अंग्रेजी डिक्शनरी के अनुसार, ज्ञान का अर्थ है शिक्षा या अनुभव के माध्यम से तथ्य, सूचना और कौशल प्राप्त करना। ज्ञान किसी विषय के सैद्धांतिक या व्यावहारिक समझ का गठन करता है। मानव समाज के वंशज, वानर व् अन्य जानवरों से केवल ज्ञान और उपयोग के कारण अलग हैं। ज्ञान केवल शिक्षा के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है।
यह बिना कहे ही जाना जा सकता है कि समानता बनाने तथा आर्थिक स्थिति के आधार पर बाधाओं तथा भेदभाव को दूर करने के लिए शिक्षा बहुत आवश्यक है। राष्ट्र की प्रगति और विकास सभी नागरिकों की शिक्षा के अधिकार की उपलब्धता पर निर्भर करता है।
शिक्षा अपने व्यापक अर्थ में आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है। दूसरे शब्दों में व्यक्ति अपने जन्म से मश्त्यु तक जो कुछ सीखता और अनुभव करता है वह सब शिक्षा के व्यापक अर्थ के अन्तर्गत माना जाता है। शिक्षाशास्त्री जब शिक्षा की बात करते हैं तो वे शिक्षा के इसी रूप को अपनी विचार सीमा में रखते हैं। इस सम्बंध में हम विद्वानों के विचारों को नीचे अंकित कर रहे हैं। यथा- लाज- ‘‘बच्चा अपने माता-पिता को और छात्र अपने शिक्षको को शिक्षिता करता है। प्रत्येक बात, हम जो कहते, सोचते या करते हैं हमें किसी प्रकार भी दूसरे व्यक्तियों के द्वारा कहीं, सोची या की गयी बात से कम शिक्षित नहीं करती है। इस व्यापक अर्थ में जीवन शिक्षा है और शिक्षा जीवन है।’’
एक पाकिस्तानी स्कूल छात्रा मलाला यूसुफजई को शिक्षा के अधिकार के लिए तालिबान से धमकी मिली थी। तालिबान में उसके सिर पर गोली मार दी गई थी लेकिन इसके बाद भी जीवित रही और तब से वह मानव अधिकार, महिलाओं के अधिकार और शिक्षा के अधिकार के लिए एक वैश्विक पक्षधर बन गई है।

शिक्षा क्या है? : -

शिक्षा के अर्थ पर अगर हम विवेचन करें तो शिक्षा एक सीखने की प्रक्रिया है, जिससे मानव समर्थ बनता है, सक्षम बनता है। शिक्षा मानव के अंदर के गुणों को उसके व्यक्तित्व को विकास करने का की एक प्रक्रिया है। शिक्षा से मानव सीखता है।
शिक्षा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द ‘शिक्ष’ से हुई है, जिसका अर्थ है सीखना।अतः शिक्षा का सरल व सीधे शब्दों में अर्थ है कि शिक्षा मनुष्य को सक्षम बनाती है उसे योग्य बनाती है। शिक्षा ऐसे नागरिकों का निर्माण करती है जिनमें संस्कार हो और सद्विचार हों। शिक्षा लोगों को व्यवसाय हेतु कुशल बनाती है उनकी बुद्धि का विकास कर उन्हें जीवन में रोजगार करने की दृष्टि से सक्षम बनाती है। शिक्षा मनुष्य के अंदर के व्यक्तित्व का विकास करती है और उसके चरित्र को सदृढ़ बनाती है। यह लोगों की सोच को सकारात्मक विचार लाकर बदलती है और नकारात्मक विचारों को हटाती है। बचपन में ही हमारे माता-पिता हमारे मस्तिष्क को शिक्षा की ओर ले जाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे प्रसिद्ध शैक्षणिक संस्था में हमारा दाखिला कराकर हमें अच्छी शिक्षा प्रदान करने का हरसंभव प्रयास करते हैं। यह हमें तकनीकी और उच्च कौशल वाले ज्ञान के साथ ही पूरे संसार में हमारे विचारों को विकसित करने की क्षमता प्रदान करती है। अपने कौशल और ज्ञान को बढ़ाने का सबसे अच्छे तरीके अखबारों को पढ़ना, टीवी पर ज्ञानवर्धक कार्यक्रमों को देखना, अच्छे लेखकों की किताबें पढ़ना आदि हैं। शिक्षा हमें अधिक सभ्य और बेहतर शिक्षित बनाती है। यह समाज में बेहतर पद और नौकरी में कल्पना की गए पद को प्राप्त करने में हमारी मदद करती है।
यह हमें जीवन में एक अच्छा चिकित्सक, अभियंता (इंजीनियर), पायलट, शिक्षक आदि, जो भी हम बनना चाहते हैं वो बनने के योग्य बनाती है। नियमित और उचित शिक्षा हमें जीवन में लक्ष्य को बनाने के द्वारा सफलता की ओर ले जाती है। पहले के समय की शिक्षा प्रणाली आज के अपेक्षा काफी कठिन थी। सभी जातियाँ अपनी इच्छा के अनुसार शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकती थी। अधिक शुल्क होने के कारण प्रतिष्ठित कालेज में प्रवेश लेना भी काफी मुश्किल था। लेकिन अब, दूरस्थ शिक्षा के माध्यम से शिक्षा प्राप्त करके आगे बढ़ना बहुत ही आसान और सरल बन गया है।
शिक्षा का महत्व पर निबंध बेहतर शिक्षा सभी के लिए जीवन में आगे बढ़ने और सफलता प्राप्त करने के लिए बहुत आवश्यक है। यह हममें आत्मविश्वास विकसित करने के साथ ही हमारे व्यक्तित्व निर्माण में भी सहायता करती है। स्कूली शिक्षा सभी के जीवन में महान भूमिका निभाती है।
तो इसका सीधा सा असर बच्चे की जिंदगी की नींव पर पड़ता है, अर्थात् बच्चे का मानसिक विकास थम सा जाता है। इसलिए यह बहुत जरूरी है कि माता -पिता बच्चे के लिए अच्छे मार्गदर्शक बने ताकि बच्चा जीवन की ऊँचाईयों को छू सके। । दूसरी तरफ एक अध्यापक के बारे में कहा जाये तो अवश्य उस अध्यापक का स्तर नीचा समझा जाता है जो छोटी उम्र या छोटी कक्षा के बच्चों को पढ़ाता है ।
लेकिन वास्तव में देखा जाए तो वह अध्यापक बहुत महान है क्योंकि वह प्रत्येक विद्यार्थी के जीवन की नींव को मजबूत आधार प्रदान करता है । लेकिन साथ ही एक अध्यापक के लिए यह बहुत जरूरी होता है कि वह प्रत्येक बच्चे को समान नजरिये से देखे, प्रत्येक बच्चे के साथ हंसी- खुशी वाला व्यवहार करे, सोचिए --यदि एक अध्यापक पढ़ाई में कमजोर विद्यार्थी के बजाय होनहार विद्यार्थी की तरह ज्यादा ध्यान दे, और कमजोर विद्यार्थी को नालायक समझकर नजरअंदाज करता रहे तो वह विद्यार्थी कैसे हौंसले के साथ आगे बढ़ेगा।
इससे तो वह विद्यार्थी स्वयं को को कमजोर समझ कर अपने लक्ष्य से पहले ही थक-हार कर बैठ जायेगा। याद रहे - "एक अध्यापक अच्छा अध्यापक तभी कहलाता है, जबउसके विषय के विद्यार्थियों का परिणाम बेहतर होगा" परन्तु इन सब बातों के साथ हमारा भी यह कर्तव्य बनता है कि हम अपने माता -पिता एवं गुरू के द्वारा बताये गये सच्चे रस्ते पर चलें उनके द्वारा जो अच्छी बातें, आदतें बताई एवं सिखाई जाती है,उन पर अम्ल करें उन्हें अपने जीवन में उतारें।
अति प्राचीन काल से, भारत समाज के पूर्ण विकास के लिए शिक्षा के महत्व के प्रति जागरूक रहा है। वैदिक युग से, गुरुकुल में पीढ़ी दर पीढ़ी से शिक्षा प्रदान की जा रही है। यह शिक्षा केवल वैदिक मंत्रों का एकमात्र ज्ञान नहीं था बल्कि छात्रों को एक पूर्ण व्यक्ति बनाने के लिए आवश्यक व्यावसायिक प्रशिक्षण भी दिया गया था। इस तरह क्षत्रियों ने युद्ध की कला सीख ली, ब्राह्मणों ने ज्ञान देने की कला सीख ली, वैश्य जाति वाणिज्य और अन्य विशिष्ट व्यावसायिक पाठ्यक्रमों को सीखकर आगे बढ़ गयी। हालांकि, शूद्र जाति शिक्षा से वंचित रही, जो समाज में सबसे नीची मानी जाती है।
इस कमी को ठीक करने के लिए और पूरे समाज के समावेशी विकास को ध्यान में रखते हुए, आरक्षण योजना चलाई गई जिसमें नीची जातियों को नि:शुल्क शिक्षा प्रदान की जाती है, साथ ही कॉलेजों और नौकरियों में सीटों के आरक्षण के साथ 1900 के प्रारंभ और बाद में भारत के संविधान में उसको सही स्थान मिला है।
वर्तमान युग में, सभी के लिए समान अवसर के माध्यम से समाज के समग्र विकास की आवश्यकता को पहचानने के लिए, सरकार ने 6 और 14 वर्ष के बीच की आयु वर्ग वाले सभी बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की सुविधा के लिए भारतीय संविधान में विभिन्न लेख शामिल किए हैं।
एडम द्वारा परिभाषित शिक्षा की प्रक्रिया को इस रूप में प्रदिश्र्णत किया जा सकता है शिक्षक शिक्षण प्रक्रिया शिक्षार्थी एडम के अनुसार शिक्षा की प्रक्रिया दो ध्रुवों के बीच चलती है जिसमें शिक्षक का परिपक्व अनुभव, व्यक्तित्व, शिक्षार्थी के अपरिपक्व व्यक्तित्व में वांछित परिवर्तन लाने का कार्य करता है। शिक्षार्थी के विकास की यह प्रक्रिया न केवल संचेतन होती है, अपितु सविमर्श होती है अर्थात् शिक्षक के सम्मुख शिक्षार्थी के विकास की दिशायें स्पष्ट एवं पूर्व निर्धारित होती है। यह परिवर्तन दो माध् यमों से होता है। प्रथम तो अध्यापक के व्यक्तित्व के प्रत्यक्ष प्रभाव एवं द्वितीय ज्ञान के विविध रूपों द्वारा। कठोपनिणद् में शिक्षण की प्रक्रिया जो इस रूप में व्याख्या की गयी है।

शिक्षा के कार्य : -

1. मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का विकास मार्गान्तीकरण और उदात्तीकरण- मनुष्य कुछ मूलभूत शक्तियों को लेकर पैदा होता है शिक्षा का कार्य इन शक्तियों का विकास करना है।

2. संतुलित व्यक्तित्व का विकास- शिक्षा का प्रमुख कार्य सतुंलित व्यक्तित्व का विकास करना भी है।
समाजशास्त्रियों के अनुसार जब दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच सामाजिक अन्त: क्रिया होती है तो वे एक दूसरे की भाषा, विचार, आचरण से प्रभावित होते हैं, यही सीखना है और जब कुछ कार्य निश्चित उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किया जाता है तो वह शिक्षा कहलाती है। समाजशास्त्रियों ने स्पष्ट किया कि शिक्षा समाज के उद्देश्यों एंव लक्ष्यों को प्राप्ति का साधन है जैसा समाज होता है वैसी उसकी शिक्षा होती है।
समाजशास्त्रियों का दसू रा तथ्य यह है कि शिक्षा समाज में सदैव चलती है। जन्म से प्रारम्भ होकर अन्त तक चलती रहती है। शिक्षा पीढ़ी दर पीढ़ी चलती है। निरन्तरता उसका दूसरा लक्षण है। जे0एस0 मेकजी के अनुसार- ‘‘शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है, जो आजीवन चलती रहती है, और जीवन के प्राय: प्रत्येक अनुभव से उसके भण्डार में वृद्धि होती है।’’ प्रो0 डमविल के अनुसार- ‘‘शिक्षा के व्यापक अर्थ में वे सभी प्रभाव आते हैं जो व्यक्ति को जन्म से लेकर मश्त्यु तक प्रभावित करते हैं।’’
अर्थशास्त्रियों के विचार समाज कें आर्थिक श्रोत और आर्थिक तन्त्र होते है। शिक्षा को वे एक उत्पादक क्रिया के रूप में स्वीकार करते हैं। उनकी दृष्टि में शिक्षा उपभोग की वस्तुओं के साथ उत्पादन की भी कारक होती है। णोध ये परिणाम देते हैं कि शिक्षित मनुष्य की उत्पादन शक्ति और संगठन क्षमता अशिक्षित व्यक्ति की अपेक्षा अधिक होती है। अर्थशास्त्री शिक्षा को एक निवेश के रूप में स्वीकार करते हैं। उनकी दृष्टि से- शिक्षा वह आर्थिक निवेश है जिसके द्वारा व्यक्ति में उत्पादन एंव संगठन के कौशलों का विकास किया जाता है और इस प्रकार व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की उत्पादन क्षमता बढ़ाई जाती है और उनका आर्थिक विकास होता है।
चरित्र निर्मार्ण्ण एवं नैतिक विकास- शिक्षा का अति महत्वपूर्ण कार्य चरित्र का निर्माण एवं उसका नैतिक विकास करना है। शिक्षा के इस कार्य पर डॉ0 राधाकृष्णन ने बल देते हुये लिखा है- ‘‘चरित्र भाग्य है। चरित्र वह वस्तु है जिस पर राष्ट्र के भाग्य का निर्माण होता है। तुच्छ चरित्र वाले मनुष्य श्रेण्ठ राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते हैं।’’
सामाजिक भावना का समावेश - व्यक्ति समाज का अभिन्न अगं है। समाज से दूर रहकर जीना असम्भव है, अत: यह आवश्यक है कि उसमें सामाजिक गुणों का विकास किया जाये। सामाजिक गुणों के विकास का कार्य भी शिक्षा का ही है। एच0 गार्डन के अनुसार- ‘‘शिक्षक को यह जानना आवश्यक है कि उसे सामाजिक प्रक्रिया में उन व्यक्तियों को समझना चाहिये जो इसे समझने में असमर्थ हैं।’’
आवश्यकताओं की पूर्ति- समाज में शिक्षा का प्रमुख कार्य आवश्यकताओ की पूर्ति है, जीवधारी होने के कारण उसकी कुछ मूलभूत आवश्यकतायें है। रोटी, कपड़ा और मकान प्रमुख है इन सभी को प्राप्त करने योग्य बानाने का कार्य शिक्षा का है। स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा के इस कार्य की ओर इंगित करते हुये स्पष्ट लिखा है कि - ‘‘शिक्षा का कार्य यह पता लगाना है कि जीवन की समस्याओं को किस प्रकार से कम किया जाये और आधुनिक सभ्य समाज का ध्यान इस ओर लगा हुआ है।’’
आत्मनिर्भरता की प्राप्ति- मानव जीवन में शिक्षा का एक प्रमुख कार्य व्यक्ति को आत्म निर्भर बनाना है। ऐसा व्यक्ति समाज के लिये भी सहायक होता है, जो अपना भार स्वयं उठा लेता है। भारत जैसे विकासशील समाज में व्यक्ति को आत्म निर्भर बनाने का कार्य शिक्षा का है। स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा के इस कार्य को इंगित करते हुये लिखा था- ‘‘केवल पुस्तकीय ज्ञान से काम नहीं चलेगा। हमें उस शिक्षा की आवश्यकता है जिससे कि व्यक्ति अपने स्वयं के पैरों पर खड़ा हो सकता है।’’
व्यावसायिक कुशलता की प्राप्ति- हमारा देश बडी़ तेजी से विकास की ओर बढ़ रहा है। वैण्वीकरण के दौर में हमें ऐसे मानव संसाधन की आवश्यकता है जो कुशल हो और अर्थ व्यवस्था के विभिन्न पक्षों में अपना उत्तरदायित्व निभा सकें। ऐसे मानव संसाधन तैयार करने का कार्य शिक्षा का है। डॉ0 राधाकृष्णन के अनुसार- ‘‘प्रयोगात्मक विषयों में प्रशिक्षित व्यक्ति कृषि और उद्योग के उत्पादन को बढ़ाने में सहायता देते है।
ये विषय सरल एवं रोजगार पाने में सहायक होते है। शिक्षा का कार्य है- अर्थकारिका विद्या।’’ जीवन के लिये तैयारी- विलमॉट ने स्पष्ट कहा है कि- ‘‘शिक्षा जीवन की तैयारी है।’’ इससे स्पष्ट है कि शिक्षा का प्रमुख कार्य बच्चों को जीवन के लिये तैयार करना है। शिक्षा के इस कार्य पर विचार करते हुये स्वामी विवेकानन्द ने स्पष्ट लिखा है कि- ‘‘क्या वह शिक्षा कहलाने के योग्य है जो सामान्य जन समूह को जीवन के संघर्ष के लियें अपने आपको तैयार करने में सहायता नही देती है और उनमें शेर सा साहस न उत्पन्न कर पाये।’’
वातावरण मनुष्य को स्वयं शिक्षित करता है और मनुष्य को प्रभावित करता है। वातावरण से अनुकूलन न कर सकने के कारण व्यक्ति का जीवन दुरूह हो जाता है। इस सम्बंध में टॉमसन ने लिखा है- ‘‘वातावरण शिक्षक है, और शिक्षा का कार्य-छात्र को उस वातावरण के अनुकूल बनाना, जिससे कि वह जीवित रह सके और अपनी मूल-प्रवण्त्तियों को सन्तुष्ट करने के लिये अधिक से अधिक सम्भव अवसर प्राप्त कर सके।’’

शिक्षा की प्रकृति : -

शिक्षा हमेशा निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। जिसे किसी विद्यालय, शिक्षा संस्थान या पुस्तकों की सीमा में कैद नहीं किया जा सकता। हर व्यक्ति निरंतर पूरे जीवन कुछ ना कुछ सीखता रहता है। सही मायनों में वो ही शिक्षा है। शिक्षा का अर्थ केवल किताबी ज्ञान हासिल करना नहीं बल्कि जीवन के व्यवहारिक ज्ञान को सीखना भी शिक्षा ही है। इसलिये शिक्षा की प्रकृति केवल पुस्तकों या शिक्षकों को तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके कहीं अधिक व्यापक है।

शिक्षक : -

शिक्षा के व्यापक अर्थ में हम सब एक दूसरे को प्रभावित करते है,ं सीखते हैं, इसलिये हम सभी शिक्षार्थी और सभी शिक्षक हैं। परन्तु संकुचित अर्थ में कुछ विशेष व्यक्ति, जो जान बूझकर दूसरों को प्रभावित करते हैं और उनके आचार-विचार में परिवर्तन करते हैं, शिक्षक कहे जाते हैं। शिक्षक के बिना नियोजित शिक्षा की कल्पना आज भी सम्भव नहीं है। शिक्षक बालक के विकास में पथ-प्रदर्णक का कार्य करता है।
पाठ्यचर्या- नियाेि जत शिक्षा के उद्देश्य निश्चित होते है। इन निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये बच्चों को ज्ञान की विभिन्न शाखाओं अर्थात् विषयों का ज्ञान कराया जाता है, और उन्हें विभिन्न प्रकार की क्रियायें करायी जाती हैं। सामान्यत: इन सबको पाठ्यचर्या कहा जाता है। वास्तविक अर्थ में पाठ्यचर्या और अधिक व्यापक होती है, उनमें विषयों के ज्ञान एवं क्रियाओं के प्रशिक्षण के साथ -साथ वह पूर्ण सामाजिक पर्यावरण भी आता है, जिसके द्वारा यथा उद्देश्यों की प्राप्ति की जाती है।