Raj Kapoor : -
प्रांरभिक जीवन : -
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| Raj Kapoor |
राज कपूर हिन्दी सिनेमा के प्रसिद्ध अभिनेता, निर्माता एवं निर्देशक थे। नेहरूवादी समाजवाद से प्रेरित[ अपनी शुरूआती फ़िल्मों से लेकर प्रेम कहानियों को मादक अंदाज से परदे पर पेश करके उन्होंने हिंदी फ़िल्मों के लिए जो रास्ता तय किया, इस पर उनके बाद कई फ़िल्मकार चले। भारत में अपने समय के सबसे बड़े 'शोमैन' थे। सोवियत संघ और मध्य-पूर्व में राज कपूर की लोकप्रियता दंतकथा बन चुकी है। उनकी फ़िल्मों खासकर श्री 420 में बंबई की जो मूल तस्वीर पेश की गई है, वह फ़िल्म निर्माताओं को अभी भी आकर्षित करती है। राज कपूर की फ़िल्मों की कहानियां आमतौर पर उनके जीवन से जुड़ी होती थीं और अपनी ज्यादातर फ़िल्मों के मुख्य नायक वे खुद होते थे। सन् 1935 में मात्र 11 वर्ष की उम्र में राजकपूर ने फ़िल्म 'इंकलाब' में अभिनय किया था।
उस समय वे बॉम्बे टॉकीज़ स्टुडिओ में सहायक (helper) का काम करते थे। बाद में वे केदार शर्मा के साथ क्लैपर ब्वाॅय का कार्य करने लगे। कुछ लोगों का मानना है कि उनके पिता पृथ्वीराज कपूर को विश्वास नहीं था कि राज कपूर कुछ विशेष कार्य कर पायेगा, इसीलिये उन्होंने उसे सहायक या क्लैपर ब्वाॅय जैसे छोटे काम में लगवा दिया था। परन्तु, पृथ्वीराज कपूर के साथ रहने वाले एवं बाद के दिनों में राज कपूर के निजी सहायक एवं सहयोगी निर्देशक वीरेन्द्रनाथ त्रिपाठी का कहना है : "पापा जी (पृथ्वीराज) हमेशा कहते थे राज पढ़ेगा-लिखेगा नहीं, पर फिल्मी दुनिया में शानदार काम करेगा। आज केदार ने उसे मेरा बेटा होने के कारण काम दिया है, लेकिन एक दिन वह भी होगा जब लोग राज को पृथ्वीराज का बेटा नहीं बल्कि पृथ्वीराज को राज कपूर का बाप होने के कारण जानेंगे।"उस समय के प्रसिद्ध निर्देशक केदार शर्मा ने राज कपूर के भीतर के अभिनय क्षमता और लगन को पहचाना और उन्होंने राज कपूर को सन् 1947 में अपनी फ़िल्म 'नीलकमल' में नायक की भूमिका दे दी। सन् 1956 राज कपूर के जीवन का महत्त्वपूर्ण वर्ष रहा।
इसी वर्ष वे एक ओर कलात्मक ऊँचाइयों के चरमोत्कर्ष तक पहुँचे और दूसरी ओर लोकप्रियता के उच्चतम शिखर तक भी। वे हिन्दी सिनेमा में अपने ढंग का अलग व्यक्तित्व बन गये, जिसका कोई मुकाबला नहीं। इस वर्ष उनकी दो फिल्में प्रदर्शित हुईं-- 'जागते रहो' और 'चोरी-चोरी'। इनमें से व्यावसायिक दृष्टि से 'चोरी-चोरी' अधिक सफल रही थी तथा अत्यधिक लोकप्रिय भी। 'जागते रहो' को आरंभ में अधिक व्यवसायिक सफलता नहीं मिली; परंतु यह एक महान फिल्म थी। इस फिल्म को कार्लोरीवेरी अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का 'ग्रैंड प्रीं' पुरस्कार मिला। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत होने के उपरान्त हिन्दी दर्शक इस फिल्म का नाम सुनकर चौंके और दोबारा प्रदर्शित होने पर पहले की अपेक्षा 'जागते रहो' को अधिक सफलता प्राप्त हुई। उस समय तक अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर किसी भारतीय फिल्म को इतना बड़ा पुरस्कार प्राप्त नहीं हुआ था।
यह पुरस्कार मिलने के बाद हिन्दी जगत ने 'जागते रहो' का भरपूर स्वागत किया। कला समीक्षकों ने इसे हिन्दी सिनेमा की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि माना सन् 1961 में राज कपूर की एकमात्र फिल्म प्रदर्शित हुई 'नज़राना' तथा 1962 में 'आशिक'। 'नज़राना' मद्रास के सुप्रसिद्ध निर्माता निर्देशक श्रीधर की पहली हिन्दी फिल्म थी। इसमें राज कपूर की नायिका थी वैजयन्ती माला। प्रेम और कर्तव्य के अंतर्द्वंद को प्रस्तुत करने वाली 'नज़राना' में राज कपूर ने लम्बे समय के बाद गंभीर भूमिका निभाई थी। यह अभिनय की दृष्टि से उनकी महत्त्वपूर्ण फिल्म है। 'आशिक' हृषिकेश मुखर्जी के निर्देशन के बावजूद अस्त-व्यस्त पटकथा के कारण अधिक सफल साबित नहीं हो पायी। सन् 1963 में प्रदर्शित 'दिल ही तो है' तथा 'एक दिल सौ अफ़साने' एवं 1964 में प्रदर्शित 'दूल्हा-दुल्हन' सामान्य रूप से ही सफल हुईं। 'दिल ही तो है' में ही मन्ना डे की आवाज में गाया गया सुप्रसिद्ध गीत था 'लागा चुनरी में दाग छुपाऊँ कैसे'। 26 जून 1964 को अखिल भारतीय स्तर पर 'संगम' प्रदर्शित हुई।
इसके 100 से अधिक प्रिंट एक साथ रिलीज किये गये थे। यह निर्माता, निर्देशक तथा अभिनेता सभी रूपों में राज कपूर की पहली रंगीन फिल्म थी। 'संगम' में राज कपूर अपनी बहुआयामी प्रतिभा के साथ उपस्थित हुए। 'संगम' के निर्माता, निर्देशक, संपादक और नायक वे स्वयं थे। इस फिल्म के लिए उन्हें 'फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार' और 'फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ सम्पादक पुरस्कार' भी प्राप्त हुए। यद्यपि यह राज कपूर की पहली फिल्म थी जिसमें कोई संदेश नहीं था; फिर भी रागात्मक सम्मोहन, नयनाभिराम दृश्यांकन और मधुर संगीत ने मिलकर इसे घनघोर लोकप्रिय बना दिया। भारत में ही नहीं, यूरोप के अनेक देशों में भी 'संगम' को बहुत सफलता मिली। 'संगम' ने राज कपूर को एशिया का सबसे बड़ा शो मैन बना दिया। 'संगम' में राज कपूर की नायिका सुप्रसिद्ध नर्तकी-अभिनेत्री वैजयन्ती माला थी तथा सह अभिनेता राजेन्द्र कुमार थे, जिनकी भूमिका को अपने उदार स्वभाव के अनुरूप ही राज कपूर ने स्वयं की भूमिका से भी अधिक महत्व दिया था। सन् 1966 में राज कपूर तथा वहीदा रहमान अभिनीत 'तीसरी कसम' प्रदर्शित हुई। यह हिन्दी साहित्य के सुप्रसिद्ध कथाकार फणीश्वर नाथ 'रेणु' रचित इसी नाम की लम्बी कहानी पर केंद्रित थी। इसका निर्माण कवि-गीतकार शैलेन्द्र ने किया था। साहित्यिक कृति पर बनी फिल्म होने से आरंभ में इसे मुश्किल से वितरक मिले और बॉक्स ऑफिस पर भी आरंभ में इसे सफलता नहीं मिली।
इसी दुःख में शैलेन्द्र दुनिया से चल बसे। परंतु बाद में लोगों ने इसका महत्व समझा और सिनेमा हॉल हाउसफुल रहने लगे। यह वह फिल्म थी जिसमें राज कपूर ने अपने जीवन की सर्वोत्कृष्ट भूमिका अदा की हालाँकि इस फिल्म के लिए पारिश्रमिक स्वरूप उन्होंने अपने मित्र कवि-गीतकार शैलेन्द्र से मात्र एक रुपया लिया था। 'तीसरी कसम' यदि एकमात्र नहीं तो चन्द उन फिल्मों में से है जिन्होंने साहित्य-रचना के साथ शत-प्रतिशत न्याय किया हो। 'तीसरी कसम' को बाद में 'राष्ट्रपति स्वर्ण पदक' मिला, बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन द्वारा सर्वश्रेष्ठ फिल्म और कई अन्य पुरस्कारों द्वारा सम्मानित किया गया। मास्को फिल्म फेस्टिवल में भी यह फिल्म पुरस्कृत हुई। इसकी कलात्मकता की काफी प्रशंसा की गयी। "वे भारतीय सिनेमा के एक ऐसे कलाकार थे, जिनकी तुलना अन्य किसी कलाकार से नहीं की जा सकती है। सिनेमा का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है, जिसका ज्ञान और अनुभव उन्हें नहीं रहा हो। सिनेमा उनमें बसता था और वे खुद सिनेमा को जीते थे, यही कारण है कि वे एक मिसाल बन गए। उनकी कामयाबी और ऊँचाई तक कोई भी पहुँच नहीं पाया है।
उन्हें अपने अभिनय के लिए दस सर्वश्रेष्ठ अभिनेताओं में एक माना गया। उन्हें सदी के सर्वश्रेष्ठ निर्देशक और सदी के सर्वश्रेष्ठ शो मैन का सम्मान भी प्रदान किया गया। उन्हें सिनेमा का सबसे बड़ा शो मैन माना जाता है, लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि वे सिर्फ व्यावसायिक फिल्में ही बनाते थे। उनकी अधिकांश फिल्मों में व्यावसायिकता, कलात्मकता, साहित्यिकता और सामाजिकता का सम्मोहक सम्मिश्रण मिलता है। वास्तव में वे एक हरफनमौला सिने व्यक्तित्व थे। उनकी फिल्मों का हर पक्ष इतना सधा हुआ होता था कि हिन्दी सिनेमा का हर दर्शक उससे मुग्ध हो जाता था। वे हिन्दी और भारतीय सिनेमा के वैसे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने उसे एक विश्वमंच प्रदान किया। नायक तो सिनेमा के क्षेत्र में बहुतेरे हुए, पर राज जैसे नायक सदियों में कोई एक ही होता है।
जन्म - 14 दिसंबर 1924
जन्म स्थान - पेशावर, पाकिस्तान
पूर्ण नाम - राज कपूर
पिता का नाम - पृथ्वीराज कपूर
माता का नाम - रामसरनी मेहरा कपूर
बच्चे - ऋषि कपूर, रणधीर कपूर, राजीव कपूर, रीमा कपूर, रितु नंदा
मृत्यु - 2 जून 1988
मृत्यु स्थान - नई दिल्ली
राज कपूर द्वारा प्रतिपादित गीत -
1. रमैया वस्तावैया
2. ए भाई ज़रा देख के चलो
3. राजा की आएगी बारात
4. दाग न लग जाए
5. दिल की नज़र से

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